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अगर बुलंदी का मेरी वो ए'तिराफ़ करे | शाही शायरी
agar bulandi ka meri wo etiraf kare

ग़ज़ल

अगर बुलंदी का मेरी वो ए'तिराफ़ करे

अख़तर शाहजहाँपुरी

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अगर बुलंदी का मेरी वो ए'तिराफ़ करे
तो फिर ज़रूरी है आ कर यहाँ तवाफ़ करे

दिलों में ख़्वाहिश-ए-दीदार हो तो लाज़िम है
जो आइना भी मयस्सर हो उस को साफ़ करे

रहूँगा मैं तो हमेशा क़सीदा-ख़्वाँ उस का
ज़मीं फ़लक से भला कैसे इख़्तिलाफ़ करे

हिसार-ए-ज़ात से बाहर निकलना हो जिस को
अना की आहनी दीवार में शिगाफ़ करे

जहाँ भी क़द्र-शनासी में कुछ कमी देखे
वहाँ ज़रूरी है ख़ुद भी कुछ इंकिशाफ़ करे

पुराने वक़्तों के कुछ लोग अब भी कहते हैं
बड़ा वही है जो दुश्मन को भी मुआ'फ़ करे

वो मेरा दोस्त भी मुंसिफ़ भी है मगर 'अख़्तर'
हर एक फ़ैसला मेरे ही क्यूँ ख़िलाफ़ करे