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अगर अनार में वो रौशनी नहीं भरता | शाही शायरी
agar anar mein wo raushni nahin bharta

ग़ज़ल

अगर अनार में वो रौशनी नहीं भरता

रऊफ़ ख़ैर

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अगर अनार में वो रौशनी नहीं भरता
तो ख़ाकसार दम-ए-आगही नहीं भरता

ये भूक प्यास बहर-हाल मिट ही जाती है
मगर है चीज़ तो ऐसी कि जी नहीं भरता

तू अपने आप में माना कि एक दरिया है
मिरा वजूद भी कूज़ा सही नहीं भरता

ये लेन-देन की अपनी हदें भी होती हैं
कि पेट भरता है झोली कोई नहीं भरता

हमारा कोई भी नेमुल-बदल नहीं होगा
हमारी ख़ाली जगह कोई भी नहीं भरता

मुआफ़ करना ये ख़ाका कहाँ उभरता है
अगर ये दस्त-ए-हुनर रंग ही नहीं भरता

कहाँ ये 'ख़ैर' कहाँ हार जीत का ख़दशा
कि जिस्म ओ जान की बाज़ी से जी नहीं भरता