EN اردو
अगर अल्लाह की वहदानियत तस्लीम करते हो | शाही शायरी
agar allah ki wahdaniyat taslim karte ho

ग़ज़ल

अगर अल्लाह की वहदानियत तस्लीम करते हो

महबूब राही

;

अगर अल्लाह की वहदानियत तस्लीम करते हो
तो फिर इंसान को ख़ानों में क्यूँ तक़्सीम करते हो

मोहब्बत दस्तरस से लफ़्ज़-ओ-मा'नी की है बाला-तर
मियाँ तुम उस की भी तशरीह और तफ़्हीम करते हो

तुम्हारा क़ौल क्यूँकर मो'तबर ठहरे कि तुम उस में
कभी तनसीख़ करते हो कभी तरमीम करते हो

हक़ीर उन को समझते हो जो हैं तौक़ीर के क़ाबिल
रज़ीलों की मगर ताज़ीम और तकरीम करते हो

बग़ावत क्यूँ नहीं करते ख़ुदा-वन्दान-ए-बातिल से
ख़ुदा बर-हक़ है इस हक़ को अगर तस्लीम करते हो

अगर क़ाबू नहीं ख़ुद पर तो सब बे-सूद-ओ-ला-हासिल
बहादुर लाख हो तस्ख़ीर हफ़्त-इक़्लीम करते हो

इन आवारा परिंदों को पकड़ पाते हो तुम क्यूँकर
ख़यालों की ऐ 'राही' किस तरह तंज़ीम करते हो