अधूरा जिस्म लिए पीछे हट रहा हूँ मैं
कि इक किनारा हूँ दरिया का कट रहा हूँ मैं
मिरे वजूद को वुसअत नहीं किसी भी तरह
हर एक सम्त से हर रोज़ घट रहा हूँ मैं
असर-पज़ीर हूँ इक ज़लज़ले से हस्ती के
ज़मीं के जैसे हर इक साँस फट रहा हूँ मैं
हैं मेरे वास्ते ख़ंजर शुआएँ सूरज की
खुली सड़क पे हूँ हर लम्हा कट रहा हूँ मैं
है मेरे सामने तेरा किताब सा चेहरा
और इस किताब के औराक़ उलट रहा हूँ मैं
पिघल रहा हूँ खड़ी धूप है मिरे सर पर
कि इक दरख़्त का साया हूँ घट रहा हूँ मैं
मिरा वजूद शिकस्ता सी एक नाव सही
भँवर की लहरों से तन्हा निमट रहा हूँ मैं
मैं इक ग़ज़ल हूँ मुझे कहिए काविश-ए-ग़ालिब
कि शहर शहर दिमाग़ों में बट रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
अधूरा जिस्म लिए पीछे हट रहा हूँ मैं
शारिक़ जमाल