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अच्छी कही दिल मैं ने लगाया है कहीं और | शाही शायरी
achchhi kahi dil maine lagaya hai kahin aur

ग़ज़ल

अच्छी कही दिल मैं ने लगाया है कहीं और

जलील मानिकपूरी

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अच्छी कही दिल मैं ने लगाया है कहीं और
ये जब हो कि तुम सा हो ज़माने में कहीं और

गर्दूं पे मह ओ मेहर गुल ओ शम्अ ज़मीं पर
इक जल्वा-ए-जानाँ है कहीं और कहीं और

मैं अक्स हूँ आईना-ए-इमकाँ में तुम्हारा
तुम सा जो नहीं और तो मुझ सा भी नहीं और

अहबाब जो करते हैं करम हाल पे मेरे
कहता है जुनूँ आइए चल बैठें कहीं और

जाते हैं मिटाते हुए वो नक़्श-ए-क़दम को
कह दे कोई उन से कि है इक ख़ाक-नशीं और

आँख उस ने मिलाई तड़प उट्ठा दिल-ए-मुज़्तर
ताका था कहीं और पड़ा तीर कहीं और

हम भूले हुए राह हैं ऐ काबा-नशीनो
जाते थे कहीं और निकल आए कहीं और

देती है मज़ा नासिया-साई तिरे दर पर
इक सज्दा जो करता हूँ तो कहती है जबीं और

कुछ रोज़ 'जलील' अपनी रही गर यही हालत
ढूँडेंगे फ़लक और निकालेंगे ज़मीं और