अच्छी गुज़र रही है दिल-ए-ख़ुद-कफ़ील से
लंगर से रोटी लेते हैं पानी सबील से
दुनिया का कोई दाग़ मिरे दिल को क्या लगे
माँगा न इक दिरम भी कभी इस बख़ील से
क्या बोरिया-नशीं को हवस ताज ओ तख़्त की
क्या ख़ाक-आश्ना को ग़रज़ अस्प ओ फ़ील से
दिल की तरफ़ से हम कभी ग़ाफ़िल नहीं रहे
करते हैं पासबानी-ए-शहर उस फ़सील से
गहवारा-ए-सफ़र में खुली है हमारी आँख
ता'मीर अपने घर की हुई संग-ए-मील से
इक शख़्स बादशाह तो इक शख़्स है वज़ीर
गोया नहीं हैं दोनों हमारी क़बील से
दुनिया मिरे पड़ोस में आबाद है मगर
मेरी दुआ-सलाम नहीं उस ज़लील से
'जावेद' एक ग़म के सिवा दिल में है भी क्या
हम घर चला रहे हैं मता-ए-क़लील से
ग़ज़ल
अच्छी गुज़र रही है दिल-ए-ख़ुद-कफ़ील से
अहमद जावेद