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अच्छा सा इख़्तिताम भी तुम से न हो सका | शाही शायरी
achchha sa iKHtitam bhi tum se na ho saka

ग़ज़ल

अच्छा सा इख़्तिताम भी तुम से न हो सका

नज्मुस्साक़िब

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अच्छा सा इख़्तिताम भी तुम से न हो सका
इस मर्तबा सलाम भी तुम से न हो सका

सुलझीं न गुत्थियाँ कभी बाहर के ख़ौफ़ की
अंदर का एहतिराम भी तुम से न हो सका

बच्चों ने आग ओढ़ ली चीख़ों के शोर में
ऐसे में कुछ कलाम भी तुम से न हो सका

ख़र्चा न घर का चल सका हर्फ़ों को बेच कर
लहजा बदल के नाम भी तुम से न हो सका

अपना ही घर सँभालना भी काम है कोई
इतना ज़रा सा काम भी तुम से न हो सका