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अबरू की तेरी ज़र्ब-ए-दो-दस्ती चली गई | शाही शायरी
abru ki teri zarb-e-do-dasti chali gai

ग़ज़ल

अबरू की तेरी ज़र्ब-ए-दो-दस्ती चली गई

मुनीर शिकोहाबादी

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अबरू की तेरी ज़र्ब-ए-दो-दस्ती चली गई
जितनी कसाई सैफ़ ये कसती चली गई

पेश-ए-नज़र हसीनों की बस्ती चली गई
आईने की भी हुस्न-परस्ती चली गई

अच्छा किया शराब ख़ुदा ने हराम की
रिंदों के साथ बादा-परस्ती चली गई

किस शहर से मिसाल दूँ अक़्लीम-ए-इश्क़ को
जितनी ये उजड़ी और भी बस्ती चली गई

रोज़े मह-ए-सियाम में तोड़े शराब से
हम फ़ाक़ा-मस्तों की वही मस्ती चली गई

वहशत-कदे से रहमत-ए-हक़ ने भी की गुरेज़
बदले हमारे घर से बरसती चली गई

खाईं ख़ुदा की राह में लाखों ही ठोकरें
ता-ला-मकाँ बुलंदी-ओ-पस्ती चली गई

मस्तों ने तर्क-ए-मय की क़सम खाई है तो क्या
तौबा कहाँ वो बात जो मस्ती चली गई

इन अबरुओं ने एक इशारे में जान ली
यक-दस्त तेरी तेग़-ए-दो-दस्ती चली गई

दिल ही गया तो कौन बुतों का करे ख़याल
कअ'बे के साथ संग परस्ती चली गई

है आसमान तक तिरे गिर्यां का मज़हका
बिजली भी रोते देख के हँसती चली गई

गो दिल के बदले दौलत-ए-दुनिया-ओ-दीं मिली
तो भी ये जिंस हाथ से सस्ती चली गई

दाग़-ए-शराब दामन-ए-तक़्वा में रह गया
नश्शे को रूह-ए-शैख़ तरसती चली गई

तहतुस-सरा को पहुँची हमारी फ़रोतनी
हम जितने पस्त हो गए पस्ती चली गई

क्यूँ कर हो इज्तिमा-ए-नक़ीज़ैन ऐ 'मुनीर'
आते ही मौत के मिरी हस्ती चली गई