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अब्र का सर पे साएबाँ भी तो हो | शाही शायरी
abr ka sar pe saeban bhi to ho

ग़ज़ल

अब्र का सर पे साएबाँ भी तो हो

साबिर शाह साबिर

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अब्र का सर पे साएबाँ भी तो हो
सोहबत याद-ए-रफ़्तगाँ भी तो हो

टूटे कैसे यहाँ सुकूत-ए-सुख़न
शहर में कोई हम-ज़बाँ भी तो हो

चाँद-तारे लिए कहाँ टाँकें
अपने हिस्से में आसमाँ भी तो हो

मेज़ गुल-दान तितलियाँ खिड़की
ऐसे मंज़र में एक मकाँ भी तो हो

अक्स चेहरे से छाँटना है अगर
एक आईना दरमियाँ भी तो हो

शे'र बूँदें बने ग़ज़ल धारा
फ़िक्र-ए-'साबिर' रवाँ-दवाँ भी तो हो