अब्र का सर पे साएबाँ भी तो हो
सोहबत याद-ए-रफ़्तगाँ भी तो हो
टूटे कैसे यहाँ सुकूत-ए-सुख़न
शहर में कोई हम-ज़बाँ भी तो हो
चाँद-तारे लिए कहाँ टाँकें
अपने हिस्से में आसमाँ भी तो हो
मेज़ गुल-दान तितलियाँ खिड़की
ऐसे मंज़र में एक मकाँ भी तो हो
अक्स चेहरे से छाँटना है अगर
एक आईना दरमियाँ भी तो हो
शे'र बूँदें बने ग़ज़ल धारा
फ़िक्र-ए-'साबिर' रवाँ-दवाँ भी तो हो

ग़ज़ल
अब्र का सर पे साएबाँ भी तो हो
साबिर शाह साबिर