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अब्र हूँ और बरसने को भी तय्यार हूँ मैं | शाही शायरी
abr hun aur barasne ko bhi tayyar hun main

ग़ज़ल

अब्र हूँ और बरसने को भी तय्यार हूँ मैं

रफ़ीक राज़

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अब्र हूँ और बरसने को भी तय्यार हूँ मैं
तुझ को सैराब करूँगा कि धुआँ-धार हूँ मैं

अब तो कुछ और ही ख़तरात से दो-चार हूँ मैं
अपने ही सर पे लटकती हुई तलवार हूँ मैं

तब मैं इक आँख था जब तो कोई मंज़र भी न था
आज तस्वीर है तो नक़्श-ब-दीवार हूँ मैं

हिज्र के बाद के मंज़र का किनाया हूँ कोई
इक धुआँ सा पस-ए-दीवार-ए-शब-ए-तार हूँ मैं

मेरा सरमाया तो बस मंज़र-ए-बे-मंज़री है
शहर-ए-बे-अक्स का इक आईना-बरदार हूँ मैं

डाल के सर को गिरेबाँ में लरज़ उठता हूँ
मुट्ठी-भर ख़ाक नहीं एक सियह ग़ार हूँ मैं

देख शामिल ही नहीं इस में कोई मेरे सिवा
देख किस क़ाफ़िला-ए-ज़ात का सालार हूँ मैं

बस यही है मिरे होने का जवाज़ और सुराग़
इक न होने से मियाँ बर-सर-ए-पैकार हूँ मैं