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अभी तमाम आइनों में ज़र्रा ज़र्रा आब है | शाही शायरी
abhi tamam aainon mein zarra zarra aab hai

ग़ज़ल

अभी तमाम आइनों में ज़र्रा ज़र्रा आब है

एजाज़ उबैद

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अभी तमाम आइनों में ज़र्रा ज़र्रा आब है
ये किस ने तुम से कह दिया कि ज़िंदगी ख़राब है

न जाने आज हम पे प्यास का ये कैसा क़हर है
कि जिस तरफ़ भी देखिए सराब ही सराब है

हर एक राह में मिटे मय-ए-नुक़ूश-ए-आरज़ू
हर इक तरफ़ थकी थकी सी रहगुज़ार ख़्वाब है

कभी न दिल के सागरों में तुम उतर सके मगर
मिरे लिए मिरा वजूद इक खुली किताब है

हर एक सम्त रेत रेत पर हवा के नक़्श हैं
यहाँ तो दश्त दश्त में हवाओं का अज़ाब है