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अभी तक साँस लम्हे बुन रही है | शाही शायरी
abhi tak sans lamhe bun rahi hai

ग़ज़ल

अभी तक साँस लम्हे बुन रही है

सुलतान सुबहानी

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अभी तक साँस लम्हे बुन रही है
समुंदर से पुरानी दोस्ती है

ये जो आँखों में इक दुनिया खड़ी है
इसी में कुछ हक़ीक़त रह गई है

नहीं पहचाना उस ने जब से मुझ को
ज़मीं कुछ अजनबी सी लग रही है

हवा मुझ से बहुत ही बद-गुमाँ है
मगर मुझ से ही लग कर चल रही है

इसी को अपना सरमाया समझ लो
अगर कुछ आस बाक़ी रह गई है

जो कल तक सिर्फ़ मेरे नाम में थी
वो ख़ुश्बू आज तुझ को याद भी है