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अभी तक जब हमें जीना न आया | शाही शायरी
abhi tak jab hamein jina na aaya

ग़ज़ल

अभी तक जब हमें जीना न आया

नश्तर ख़ानक़ाही

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अभी तक जब हमें जीना न आया
भरोसा क्या कि कल आया न आया

जले हम यूँ कि जैसे चोब-ए-नम हों
चराग़ों की तरह जलना न आया

ग़ुलेलें ला के बच्चे पूछते हैं
परिंदा क्यूँ वो दोबारा न आया

मैं क्या कहता कि सब के साथ में था
अयादत को भी वो तन्हा न आया

इहाता चहार-दीवारी अंधेरा
किसी जानिब भी दरवाज़ा न आया

वो पहले की तरह बिछड़ा है अब भी
मगर अब के हमें रोना न आया

ख़ज़ाना ले उड़ा चोरों का जत्था
पलट कर फिर अली-बाबा न आया