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अभी तक चश्म-ए-क़ातिल से पशेमानी नहीं जाती | शाही शायरी
abhi tak chashm-e-qatil se pashemani nahin jati

ग़ज़ल

अभी तक चश्म-ए-क़ातिल से पशेमानी नहीं जाती

शौक़ बिजनौरी

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अभी तक चश्म-ए-क़ातिल से पशेमानी नहीं जाती
नदामत ख़ून-ए-नाहक़ की ब-आसानी नहीं जाती

हक़ीक़त पर्दा-ए-बातिल में छुप जाए ये ना-मुम्किन
पस-ए-फ़ानूस भी शो'लों की उर्यानी नहीं जाती

फ़रिश्ते महव-ए-हैरत रह गए पर्वाज़-ए-इंसाँ पर
वहाँ पहुँचा जहाँ तक अक़्ल-ए-इंसानी नहीं जाती

सितमगारी असर करती नहीं रंगीं तबीअ'त पर
क़फ़स में भी अनादिल की ग़ज़ल-ख़्वानी नहीं जाती

न हो जाए कहीं ज़ेर-ओ-ज़बर ये आईना-ख़ाना
निगाह-ए-'शौक़' से जल्वों की हैरानी नहीं जाती