अभी रुत को बदलते देखना है
भरी शाख़ों को जलते देखना है
तिरी बख़्शी हुई ख़िलअत पहन कर
मुझे हर जब्र पलते देखना है
चिराग़-ए-दर्द ताक़-ए-जाँ पे रख कर
हवाओं को मचलते देखना है
ज़रा इक लम्स की हिद्दत अता हो
अगर पत्थर पिघलते देखना है
पहाड़ी से परे उन घाटियों में
कोई चश्मा उबलते देखना है
बड़ी मासूम ख़्वाहिश है 'मुनव्वर'
कभी सूरज निकलते देखना है
ग़ज़ल
अभी रुत को बदलते देखना है
मुनव्वर अज़ीज़