अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
ग़ज़ल में अब के भी तेरा हवाला कम रहेगा
मिरी वहशत पे सहरा तंग होता जा रहा है
कहा तो था ये आँगन ला-मुहाला कम रहेगा
भला वो हुस्न किस की दस्तरस में आ सका है
कि सारी उम्र भी लिक्खें मक़ाला कम रहेगा
बहुत से दुख तो ऐसे भी दिए तुम ने कि जिन का
मुदावा हो नहीं सकता इज़ाला कम रहेगा
वो चाँदी का हो सोने का हो या फिर हो लहू का
'सलीम' अहल-ए-हवस को हर निवाला कम रहेगा
ग़ज़ल
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
सलीम कौसर