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अभी है ग़ैर के अल्ताफ़ से जफ़ा-ए-हबीब | शाही शायरी
abhi hai ghair ke altaf se jafa-e-habib

ग़ज़ल

अभी है ग़ैर के अल्ताफ़ से जफ़ा-ए-हबीब

जाफ़र अली हसरत

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अभी है ग़ैर के अल्ताफ़ से जफ़ा-ए-हबीब
वही रज़ा है हमारी जो है रज़ा-ए-हबीब

न समझूँ अपना किसी को रक़ीब रश्क से मैं
वो मेरा दोस्त है जो होवे आश्ना-ए-हबीब

वो ख़्वाह क़त्ल करे ख़्वाह मेरी जाँ बख़्शे
कि मर्ग ओ ज़ीस्त पे मुख़्तार है रज़ा-ए-हबीब

न तेग़-ए-यार से गर्दन फिराऊँ मैं हरगिज़
कि ऐन-लुत्फ़ समझता हूँ मैं जफ़ा-ए-हबीब

पतिंगे शम्अ के सदक़े हों बुलबुलें गुल पर
कोई किसी के फ़िदा हो मैं हूँ फ़िदा-ए-हबीब

बहिश्त की मुझे तर्ग़ीब दे न तू वाइज़
किसी की मुझ को तमन्ना नहीं सिवाए हबीब

हमेशा मुझ से वो कहता था मर कहीं 'हसरत'
हज़ार शुक्र पज़ीराई हुई दुआ-ए-हबीब