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अभी दश्त-ए-कर्बला में है बुलंद ये तराना | शाही शायरी
abhi dasht-e-karbala mein hai buland ye tarana

ग़ज़ल

अभी दश्त-ए-कर्बला में है बुलंद ये तराना

माहिर-उल क़ादरी

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अभी दश्त-ए-कर्बला में है बुलंद ये तराना
यही ज़िंदगी हक़ीक़त यही ज़िंदगी फ़साना

तिरा काम तन की पूजा मिरा काम मन की सेवा
मुझे जुस्तुजू यक़ीं की तुझे फ़िक्र-ए-आब-ओ-दाना

मिरे शौक़-ए-मुज़्तरिब से है रवाँ निज़ाम-ए-हस्ती
जो ठहर गई मोहब्बत तो ठहर गया ज़माना

वो फ़क़ीह-ए-कू-ए-बातिन है अदू-ए-दीन-ओ-मिल्लत
किसी ख़ौफ़-ए-दुनियवी से जो तराश दे फ़साना

तिरा ख़ार-ओ-ख़स पे तकिया मिरा इश्क़ पर भरोसा
मुझे बर्क़ से मोहब्बत तुझे ख़ौफ़-ए-आशियाना

मिरे जज़्ब-ए-दिल को 'माहिर' कोई क्या समझ सकेगा
मिरी शाइरी की हद से अभी दूर है ज़माना