अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहीं
अश्क बह जाते हैं लेकिन आँख तर होती नहीं
फिर कोई कम-बख़्त कश्ती नज़र-ए-तूफ़ाँ हो गई
वर्ना साहिल पर उदासी इस क़दर होती नहीं
तेरा अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल है जुनूँ में आज कल
चाक कर लेता हूँ दामन और ख़बर होती नहीं
हाए किस आलम में छोड़ा है तुम्हारे ग़म ने साथ
जब क़ज़ा भी ज़िंदगी की चारा-गर होती नहीं
रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
चंद शम्ओं के भड़कने से सहर होती नहीं
इज़्तिराब-ए-दिल से 'क़ाबिल' वो निगाह-ए-बे-नियाज़
बे-ख़बर मालूम होती है मगर होती नहीं
ग़ज़ल
अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहीं
क़ाबिल अजमेरी