अब वो कहते हैं मुद्दआ कहिए
सोचता हूँ कि 'नक़्श' क्या कहिए
ज़िंदगी ज़िंदगी से रूठ गई
हाए अब किस को आश्ना कहिए
है तग़ाफ़ुल का क्यूँ गिला उन से
आह-ए-सोज़ाँ को ना-रसा कहिए
अपनी कश्ती तो डूब ही जाती
अज़्म-ए-मोहकम को नाख़ुदा कहिए
थरथराहट हया की उस रुख़ पर
रक़्स-ए-नैरंगी-ए-सबा कहिए
खोई खोई हैं धड़कनें दिल की
फिर मोहब्बत की इब्तिदा कहिए
इत्तिफ़ाक़न ये आप का मिलना
एक रंगीन हादसा कहिए
ना-शनास-ए-अलम हो जो हस्ती
सच तो ये है कि बे-मज़ा कहिए
दुश्मन-ए-जाँ तो दुश्मन-ए-जाँ है
ग़मगुसारों को 'नक़्श' क्या कहिए
ग़ज़ल
अब वो कहते हैं मुद्दआ कहिए
महेश चंद्र नक़्श