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अब उसे छोड़ के जाना भी नहीं चाहते हम | शाही शायरी
ab use chhoD ke jaana bhi nahin chahte hum

ग़ज़ल

अब उसे छोड़ के जाना भी नहीं चाहते हम

हसीब सोज़

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अब उसे छोड़ के जाना भी नहीं चाहते हम
और घर इतना पुराना भी नहीं चाहते हम

सर भी महफ़ूज़ इसी में है हमारा लेकिन
क्या करें सर को झुकाना भी नहीं चाहते हम

अपनी ग़ैरत के लिए फ़ाक़ा-कशी भी मंज़ूर
तेरी शर्तों पे ख़ज़ाना भी नहीं चाहते हम

हाथ और पाँव किसी के हों किसी का सर हो
इस तरह क़द को बढ़ाना भी नहीं चाहते हम

आँखें जब दी हैं नज़ारे भी अता कर या-रब
एक कमरे में ज़माना भी नहीं चाहते हम