अब उन से और तक़ाज़ा-ए-बादा क्या करता
जो मिल गया है मैं उस से ज़ियादा क्या करता
भला हुआ कि तिरे रास्ते की ख़ाक हुआ
मैं ये तवील सफ़र पा-पियादा क्या करता
मुसाफ़िरों की तो ख़ैर अपनी अपनी मंज़िल थी
तिरी गली को न जाता तो जादा क्या करता
तुझे तो घेरे ही रहते हैं रंग रंग के लोग
तिरे हुज़ूर मिरा हर्फ़-ए-सादा क्या करता
बस एक चेहरा किताबी नज़र में है 'नासिर'
किसी किताब से मैं इस्तिफ़ादा क्या करता
ग़ज़ल
अब उन से और तक़ाज़ा-ए-बादा क्या करता
नासिर काज़मी