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अब उजड़ने के हम न बसने के | शाही शायरी
ab ujaDne ke hum na basne ke

ग़ज़ल

अब उजड़ने के हम न बसने के

बकुल देव

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अब उजड़ने के हम न बसने के
कट गए जाल सारे फँसने के

तजरबों में न ज़हर ज़ाएअ' कर
सीख आदाब पहले डसने के

उस से कहियो जो ख़ुद में डूबा है
तुझ पे बादल नहीं बरसने के

मिलना-जुलना अभी भी है लेकिन
हाथ से हाथ अब न मसने के

नक़्श-ए-सानी हैं झिलमिलाते सराब
नक़्श-ए-अव्वल थे पावँ धंसने के

ऐसा वीराँ हुआ है दिल इस बार
अब के इम्काँ नहीं हैं बसने के

रूठे बच्चों से छेड़ करता हूँ
ढूँढता हूँ बहाने हँसने के