अब टूटने ही वाला है तन्हाई का हिसार
इक शख़्स चीख़ता है समुंदर के आर-पार
आँखों से राह निकली है तहतुश-शुऊर तक
रग रग में रेंगता है सुलगता हुआ ख़ुमार
गिरते रहे नुजूम अँधेरे की ज़ुल्फ़ से
शब भर रहीं ख़मोशियाँ सायों से हम-कनार
दीवार-ओ-दर पे ख़ुशबू के हाले बिखर गए
तन्हाई के फ़रिश्तों ने चूमी क़बा-ए-यार
कब तक पड़े रहोगे हवाओं के हाथ में
कब तक चलेगा खोखले शब्दों का कारोबार
ग़ज़ल
अब टूटने ही वाला है तन्हाई का हिसार
आदिल मंसूरी