अब तू हो किसी रंग में ज़ाहिर तो मुझे क्या 
ठहरे तिरे घर कोई मुसाफ़िर तो मुझे क्या 
वीराना-ए-जाँ की जो फ़ज़ा थी सो रहेगी 
चहके किसी गुलशन में वो ताइर तो मुझे क्या 
वो शम्अ मिरे घर में तो बे-नूर ही ठहरी 
बाज़ार में वो जिंस हो नादिर तो मुझे क्या 
वो रंग-फ़िशाँ आँख वो तस्वीर-नुमा हाथ 
दिखलाएँ नए रोज़ मनाज़िर तो मुझे क्या 
मैं ने उसे चाहा था तो चाहा न गया मैं 
चाहे मुझे अब वो मिरी ख़ातिर तो मुझे क्या 
दुनिया ने तो जाना कि नुमू उस में है मेरी 
अब हो वो मिरी ज़ात का मुनकिर तो मुझे क्या 
इक ख़्वाब था और बुझ गया आँखों ही में अपनी 
अब कोई पुकारे मिरे शाइर तो मुझे क्या
        ग़ज़ल
अब तू हो किसी रंग में ज़ाहिर तो मुझे क्या
उबैदुल्लाह अलीम

