अब तो मुँह से बोल मुझ को देख दिन भर हो गया
ऐ बुत-ए-ख़ामोश क्या सच-मुच का पत्थर हो गया
अब तो चुप हो बाग़ में नालों से महशर हो गया
ये भी ऐ बुलबुल कोई सय्याद का घर हो गया
इल्तिमास-ए-क़त्ल पर कहते हो फ़ुर्सत ही नहीं
अब तुम्हें इतना ग़ुरूर अल्लाहु-अकबर हो गया
महफ़िल-ए-दुश्मन में जो गुज़री वो मेरे दिल से पूछ
हर इशारा जुम्बिश-ए-अबरू का ख़ंजर हो गया
आशियाने का बताएँ क्या पता ख़ाना-ब-दोश
चार तिनके रख लिए जिस शाख़ पर घर हो गया
हिर्स तो देखो फ़लक भी मुझ पे करता है सितम
कोई पूछे तो भी क्या उन के बराबर हो गया
सोख़्ता दिल में न मिलता तीर को ख़ूँ ऐ 'क़मर'
ये भी कुछ मेहमाँ की क़िस्मत से मयस्सर हो गया
ग़ज़ल
अब तो मुँह से बोल मुझ को देख दिन भर हो गया
क़मर जलालवी