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अब तो लफ़्ज़ों के तक़ाज़ों का भरोसा न रहा | शाही शायरी
ab to lafzon ke taqazon ka bharosa na raha

ग़ज़ल

अब तो लफ़्ज़ों के तक़ाज़ों का भरोसा न रहा

आमिर नज़र

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अब तो लफ़्ज़ों के तक़ाज़ों का भरोसा न रहा
इक सिवा तर्ज़-ए-ख़मोशी के असासा न रहा

आज नादीदा सितारों ने क़बाएँ बख़्शीं
आसमाँ तेरा बदन अब तो बरहना न रहा

कितने सदियों की थकन तू ने समेटी है ज़मीं
फिर भी चेहरा तिरा इस हाल में उतरा न रहा

जिस्म-ए-आशुफ़्ता ने सैलाब सँभाले कितने
हाल क्यूँ ऐसा हुआ हाथ में क़तरा न रहा

ऐ शब-ए-तीरा-बदन ये तो परेशानी है
तेरी शह-रग का लहू आँख में ज़िंदा न रहा

मुंतशिर हो गए ऐवान-ए-तफ़क्कुर 'आमिर'
या'नी अर्शानी-ए-इम्काँ का ज़ीना न रहा