अब तो बोसीदा हो चले हैं हम
टूटने फूटने लगे हैं हम
ज़ख़्म-ए-दिल की कसक छुपाने को
जिस्म पर घाव चाहते हैं हम
अब नहीं फ़िक्र-ए-सूद रंज-ए-ज़ियाँ
ख़्वार होना था हो चुके हैं हम
अब सभी कुछ हमें गवारा है
हाए कितने बदल गए हैं हम
हम से दामन बचा के चलती है
ऐ सबा तुझ को जानते हैं हम
राहबर के बग़ैर ही 'अहसन'
नई राहों पे चल सके हैं हम
ग़ज़ल
अब तो बोसीदा हो चले हैं हम
अहसन अली ख़ाँ