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अब तिरी याद से वहशत नहीं होती मुझ को | शाही शायरी
ab teri yaad se wahshat nahin hoti mujhko

ग़ज़ल

अब तिरी याद से वहशत नहीं होती मुझ को

शाहिद ज़की

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अब तिरी याद से वहशत नहीं होती मुझ को
ज़ख़्म खुलते हैं अज़िय्यत नहीं होती मुझ को

अब कोई आए चला जाए मैं ख़ुश रहता हूँ
अब किसी शख़्स की आदत नहीं होती मुझ को

ऐसा बदला हूँ तिरे शहर का पानी पी कर
झूट बोलूँ तो नदामत नहीं होती मुझ को

है अमानत में ख़यानत सो किसी की ख़ातिर
कोई मरता है तो हैरत नहीं होती मुझ को

तू जो बदले तिरी तस्वीर बदल जाती है
रंग भरने में सुहूलत नहीं होती मुझ को

अक्सर औक़ात मैं ता'बीर बता देता हूँ
बाज़ औक़ात इजाज़त नहीं होती मुझ को

इतना मसरूफ़ हूँ जीने की हवस में 'शाहिद'
साँस लेने की भी फ़ुर्सत नहीं होती मुझ को