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अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया | शाही शायरी
ab tere lams ko yaad karne ka ek silsila aur diwana-pan rah gaya

ग़ज़ल

अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया

इरफ़ान सत्तार

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अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया
तू कहीं खो गया और पहलू में तेरी शबाहत लिए इक बदन रह गया

वो सरापा तिरा वो तिरे ख़ाल-ओ-ख़द मेरी यादों में सब मुंतशिर हो गए
लफ़्ज़ की जुस्तुजू में लरज़ता हुआ नीम-वा सा फ़क़त इक दहन रह गया

हर्फ़ के हर्फ़ से क्या तज़ादात हैं तू ने भी कुछ कहा मैं ने भी कुछ कहा
तेरे पहलू में दुनिया सिमटती गई मेरे हिस्से में हर्फ़-ए-सुख़न रह गया

तेरे जाने से मुझ पर ये उक़्दा खुला रंग-ओ-ख़ुशबू तो बस तेरी मीरास थे
एक हसरत सजी रह गई गुल-ब-गुल एक मातम चमन-दर-चमन रह गया

एक बे-नाम ख़्वाहिश की पादाश में तेरी पलकें भी बाहम पिरो दी गईं
एक वहशत को सैराब करते हुए में भी आँखों में ले कर थकन रह गया

अरसा-ए-ख़्वाब से वक़्त मौजूद के रास्ते में गँवा दी गई गुफ़्तुगू
एक इसरार की बेबसी रह गई एक इंकार का बाँकपन रह गया

तू सितारों को अपनी जिलौ में लिए जा रहा था तुझे क्या ख़बर क्या हुआ
इक तमन्ना दरीचे में बैठी रही एक बिस्तर कहीं बे-शिकन रह गया