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अब तक तो सारे ग़म से मिरे बे-ख़बर मिले | शाही शायरी
ab tak to sare gham se mere be-KHabar mile

ग़ज़ल

अब तक तो सारे ग़म से मिरे बे-ख़बर मिले

ख़लील राज़ी

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अब तक तो सारे ग़म से मिरे बे-ख़बर मिले
बतलाऊँ हाल-ए-दिल जो कोई चारागर मिले

लम्हे हुसूल-ए-शौक़ के बस इस क़दर मिले
भटके हुए को राह में जैसे ख़िज़र मिले

उन के बग़ैर कर न सके ज़िंदगी ब-ख़ैर
रंज-ओ-अलम के साथ तो हम उम्र-भर मिले

दिल था कहीं लगा कहीं आँखें बिछी हुईं
ये सारे एहतिमाम तिरी राह पर मिले

करना है ताज़ा फिर मुझे अफ़्साना तूर का
ऐ काश मेरी उन की कहीं पर नज़र मिले

गुज़रे हैं अक़्ल-ओ-होश-ओ-ख़िरद की हुदूद से
हम हों कहीं तो तुम को हमारी ख़बर मिले

'राज़ी' झुके थे हुस्न-ए-चमन पर कि एक दिन
शीराज़े गुल के बिखरे हुए ख़ाक पर मिले