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अब तक तो कमी कुछ न हुई दाग़-ए-जिगर में | शाही शायरी
ab tak to kami kuchh na hui dagh-e-jigar mein

ग़ज़ल

अब तक तो कमी कुछ न हुई दाग़-ए-जिगर में

जावेद लख़नवी

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अब तक तो कमी कुछ न हुई दाग़-ए-जिगर में
बरसों से चराग़ एक ही जलता रहा घर में

ज़ाहिर में हँसे वो मगर आँसू निकल आए
था कोई असर भी मिरे मरने की ख़बर में

रंग उड़ने न दूँगा तिरी तस्वीर के रुख़ से
बाक़ी अभी कुछ ख़ून के ख़तरे हैं जिगर में

तौसी-ए-ख़यालात की हद मिल नहीं सकती
छोटा सा बयाबाँ नज़र आ जाता है घर में

अब बढ़ नहीं सकता ग़म-ए-दुनिया ये ख़ुशी है
ज़ख़्मों की जगह तक नहीं बाक़ी है जिगर में

इन अँखड़ियों के सुर्ख़ मैं डोरे नहीं भूला
ये बिजलियाँ ऐसी हैं जो अब तक हैं नज़र में

ना-वाक़िफ़-ए-अंजाम का दिल होता है कितना
ख़ुद रो दिया देखे जो कभी ज़ख़्म जिगर में

उस दौर में आप आए थे ऐ हज़रत-ए-'जावेद'
जिस अहद में कुछ फ़र्क़ न था ऐब-ओ-हुनर में