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अब तक जो जी चुका हूँ जनम गिन रहा हूँ मैं | शाही शायरी
ab tak jo ji chuka hun janam gin raha hun main

ग़ज़ल

अब तक जो जी चुका हूँ जनम गिन रहा हूँ मैं

सरफ़राज़ आरिश

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अब तक जो जी चुका हूँ जनम गिन रहा हूँ मैं
दुनिया समझ रही है कि ग़म गिन रहा हूँ मैं

मतरूक रास्ते में लगा संग-ए-मील हूँ
भटके हुए के सीधे क़दम गिन रहा हूँ मैं

टेबल से गिर के रात को टूटा है इक गिलास
बत्ती जला के अपनी रक़म गिन रहा हूँ मैं

तादाद जानना है कि कितने मरे हैं आज
जो चल नहीं सके हैं वो बम गिन रहा हूँ मैं

मैं संतरी हूँ औरतों की जेल का हुज़ूर
दो-चार क़ैदी इस लिए कम गिन रहा हूँ मैं

'आरिश' सुराही-दार सी गर्दन के सेहर में
ज़मज़म सी गुफ़्तुगू को भी रम गिन रहा हूँ मैं