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अब सफ़र रात में ही करते हैं | शाही शायरी
ab safar raat mein hi karte hain

ग़ज़ल

अब सफ़र रात में ही करते हैं

नवाब अहसन

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अब सफ़र रात में ही करते हैं
लोग अब रौशनी से डरते हैं

रह के इक शहर-ए-बे-चराग़ में हम
रोज़ जीते हैं रोज़ मरते हैं

याद आते हैं सारे पस-ए-मंज़र
नक़्श माज़ी के जब उभरते हैं

ज़िंदगी यूँ बिखर गई जैसे
टूट कर आइने बिखरते हैं

घर की बोसीदगी छुपाने को
रंग दीवार-ओ-दर में भरते हैं

अपने घर के क़रीब से अक्सर
अजनबी बिन के हम गुज़रते हैं

शाम होती है घर चलो 'अहसन'
साए दीवार से उतरते हैं