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अब निभानी ही पड़ेगी दोस्ती जैसी भी है | शाही शायरी
ab nibhani hi paDegi dosti jaisi bhi hai

ग़ज़ल

अब निभानी ही पड़ेगी दोस्ती जैसी भी है

शहज़ाद अहमद

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अब निभानी ही पड़ेगी दोस्ती जैसी भी है
आप जैसे भी हैं निय्यत आप की जैसी भी है

खुल चुकी हैं उस के घर की खिड़कियाँ मेरे लिए
रुख़ मिरी जानिब रहेगा बे-रुख़ी जैसी भी है

चोटियाँ छू कर गुज़रते हैं बरसते क्यूँ नहीं
बादलों की एक सूरत आदमी जैसी भी है

अजनबी शहरों में तुझ को ढूँढता हूँ जिस तरह
इक गली हर शहर में तेरी गली जैसी भी है

आज के दुख ही बहुत हैं बीम-ए-फ़र्दा किस लिए
कट ही जाएगी अज़िय्यत की घड़ी जैसी भी है

धुँदला धुँदला ही सही रस्ता दिखाई तो दिया
आज का दिन है ग़नीमत रौशनी जैसी भी है

झूलती है मेरे दिल में एक शाख़ उस पेड़ की
वो तर-ओ-ताज़ा है या सूखी हुई जैसी भी है

मैं ने देखा है फ़लक को जागते सोते हुए
मेरी आँखों तक तो आई चाँदनी जैसी भी है

अब कहाँ ले जाएँ साँसों की सुलगती आग को
ज़िंदगी है ज़िंदगी अच्छी बुरी जैसी भी है

कोई मौसम हो मिरी ख़ुश्बू रहे इस फूल में
दास्ताँ मेरी कही या अन-कही जैसी भी है

अपना हक़ 'शहज़ाद' हम छीनेंगे माँगेंगे नहीं
रहम की तालिब नहीं बे-चारगी जैसी भी है