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अब मुलाक़ात कहाँ शीशे से पैमाने से | शाही शायरी
ab mulaqat kahan shishe se paimane se

ग़ज़ल

अब मुलाक़ात कहाँ शीशे से पैमाने से

बिस्मिल अज़ीमाबादी

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अब मुलाक़ात कहाँ शीशे से पैमाने से
फ़ातिहा पढ़ के चले आए हैं मय-ख़ाने से

क्या करें जाम-ओ-सुबू हाथ पकड़ लेते हैं
जी तो कहता है कि उठ जाइए मय-ख़ाने से

फूँक कर हम ने हर इक गाम पे रक्खा है क़दम
आसमाँ फिर भी न बाज़ आया सितम ढाने से

हम को जब आप बुलाते हैं चले आते हैं
आप भी तो कभी आ जाइए बुलवाने से

अरे ओ वादा-फ़रामोश पहाड़ ऐसी रात
क्या कहूँ कैसे कटी तेरे नहीं आने से

याद रख! वक़्त के अंदाज़ नहीं बदलेंगे
अरे अल्लाह के बंदे तिरे घबराने से

सर चढ़ाएँ कभी आँखों से लगाएँ साक़ी
तेरे हाथों की छलक जाए जो पैमाने से

ख़ाली रक्खी हुई बोतल ये पता देती है
कि अभी उठ के गया है कोई मय-ख़ाने से

आएगी हश्र की नासेह की समझ में क्या ख़ाक
जब समझदार समझते नहीं समझाने से

बर्क़ के डर से कलेजे से लगाए हुए है
चार तिनके जो उठा लाई है वीराने से

दिल ज़रा भी न पसीजा बुत-ए-काफ़िर तेरा
काबा अल्लाह का घर बन गया बुत-ख़ाने से

शम्अ बेचारी जो इक मूनिस-ए-तन्हाई थी
बुझ गई वो भी सर-ए-शाम हवा आने से

ग़ैर काहे को सुनेंगे तिरा दुखड़ा 'बिस्मिल'
उन को फ़ुर्सत कहाँ है अपनी ग़ज़ल गाने से