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अब मो'तक़िद-ए-गर्दिश-ए-दौराँ न रहे हम | शाही शायरी
ab motaqid-e-gardish-e-dauran na rahe hum

ग़ज़ल

अब मो'तक़िद-ए-गर्दिश-ए-दौराँ न रहे हम

ललन चौधरी

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अब मो'तक़िद-ए-गर्दिश-ए-दौराँ न रहे हम
क़ाबिल तिरे ऐ दीदा-ए-जानाँ न रहे हम

कब मिल के उन्हें दिल की तमन्नाएँ बर आईं
कब उन से जुदा हो के परेशाँ न रहे हम

ये बात दिगर है कि न थे रू-ब-रू उन के
कब दीद का दिल में लिए अरमाँ न रहे हम

क़िस्मत तो ज़रा देखो कब आई हैं बहारें
जब क़ाबिल-ए-गुल-गश्त-ए-गुलिस्ताँ न रहे हम

साक़ी की निगाहों ने पिला दी है कुछ ऐसी
जाम-ए-मय-ए-गुलफ़ाम के ख़्वाहाँ न रहे हम

अब दर्द ही राहत सी हमें देने लगा है
चारागरो मिन्नत-कश-ए-दरमाँ न रहे हम

'आफ़त' रह-ए-उल्फ़त में हँसी आई थी इक दिन
बा'द उस के कभी ज़ीस्त में ख़ंदाँ न रहे हम