अब मौत से बचाए कहाँ ज़ीस्त क्या मजाल
फैले हुए हैं जिस्म में नीली रगों के जाल
यूँ तो नहीं कि उम्र गँवाई है धूप में
फबती सी कस रहे हैं ये सर के सफ़ेद बाल
मोहलत किसे मिले है यहाँ लब-कुशाई की
आँखों में नाच नाच के थकते रहे सवाल
मल्बूस तो बदन से कभी का उतर चुका
तब लुत्फ़ आए जिस्म से खिंच जाए और खाल
'सरशार' आओ देखें तो ये कौन शख़्स है
इक हाथ में किताब है इक हाथ में कुदाल
ग़ज़ल
अब मौत से बचाए कहाँ ज़ीस्त क्या मजाल
सरशार बुलंदशहरी