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अब मसाफ़त में तो आराम नहीं आ सकता | शाही शायरी
ab masafat mein to aaram nahin aa sakta

ग़ज़ल

अब मसाफ़त में तो आराम नहीं आ सकता

इदरीस बाबर

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अब मसाफ़त में तो आराम नहीं आ सकता
ये सितारा भी मिरे काम नहीं आ सकता

ये मिरी सल्तनत-ए-ख़्वाब है आबाद रहो
इस के अंदर कोई बहराम नहीं आ सकता

जाने खिलते हुए फूलों को ख़बर है कि नहीं
बाग़ में कोई सियह-फ़ाम नहीं आ सकता

हर हवा-ख़्वाह ये कहता था कि महफ़ूज़ हूँ मैं
बुझने वालों में मिरा नाम नहीं आ सकता

मैं जिन्हें याद हूँ अब तक यही कहते होंगे
शाहज़ादा कभी नाकाम नहीं आ सकता

डर ही लगता है कि रस्ते में न रह जाऊँ कहीं
कहलवा दीजिए में शाम नहीं आ सकता