अब मसाफ़त में तो आराम नहीं आ सकता
ये सितारा भी मिरे काम नहीं आ सकता
ये मिरी सल्तनत-ए-ख़्वाब है आबाद रहो
इस के अंदर कोई बहराम नहीं आ सकता
जाने खिलते हुए फूलों को ख़बर है कि नहीं
बाग़ में कोई सियह-फ़ाम नहीं आ सकता
हर हवा-ख़्वाह ये कहता था कि महफ़ूज़ हूँ मैं
बुझने वालों में मिरा नाम नहीं आ सकता
मैं जिन्हें याद हूँ अब तक यही कहते होंगे
शाहज़ादा कभी नाकाम नहीं आ सकता
डर ही लगता है कि रस्ते में न रह जाऊँ कहीं
कहलवा दीजिए में शाम नहीं आ सकता
ग़ज़ल
अब मसाफ़त में तो आराम नहीं आ सकता
इदरीस बाबर