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अब क्या गिला कि रूह को खिलने नहीं दिया | शाही शायरी
ab kya gila ki ruh ko khilne nahin diya

ग़ज़ल

अब क्या गिला कि रूह को खिलने नहीं दिया

राशिद मुफ़्ती

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अब क्या गिला कि रूह को खिलने नहीं दिया
उस ने तो मुझ को ख़ाक में मिलने नहीं दिया

कोशिश हवा ने रात भर अपनी सी की मगर
ज़ंजीर-ए-दर को मैं ने ही हिलने नहीं दिया

इक बार उस से बात तो मैं कर के देख लूँ
इतना भी आसरा मुझे दिल ने नहीं दिया

करता वो अपने आप को क्या मुझ पे मुन्कशिफ़
उस ने तो मुझ से भी मुझे मिलने नहीं दिया

क़ाएम नहीं रहा फ़क़त अपनी ही बात पर
अपनी जगह से मुझ को भी मिलने नहीं दिया

आख़िर कोई सुबूत तो हो बे-गुनाही का
दामन को इस ख़याल ने सिलने नहीं दिया

'राशिद' हवा से माँग के क्यूँ शर्मसार हो
जो तुम को आब-ओ-आतिश-ओ-गिल ने नहीं दिया