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अब क्या गिला करें कि मुक़द्दर में कुछ न था | शाही शायरी
ab kya gila karen ki muqaddar mein kuchh na tha

ग़ज़ल

अब क्या गिला करें कि मुक़द्दर में कुछ न था

सैफ़ ज़ुल्फ़ी

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अब क्या गिला करें कि मुक़द्दर में कुछ न था
हम ग़ोता-ज़न हुए तो समुंदर में कुछ न था

दीवाना कर गई तिरी तस्वीर की कशिश
चूमा जो पास जा के तो पैकर में कुछ न था

अपने लहू की आग हमें चाटती रही
अपने बदन का ज़हर था साग़र में कुछ न था

देखा तो सब ही लाल-ओ-जवाहर लगे मुझे
परखा जो दोस्तों को तो अक्सर में कुछ न था

सब रंग सैल-ए-तीरगी-ए-शब से ढल गए
सब रौशनी के अक्स थे मंज़र में कुछ न था