अब किसी को क्या बताएँ किस क़दर नादान थे 
हम वहीं कश्ती को ले आए जहाँ तूफ़ान थे 
कुछ तड़पती आरज़ूएँ चंद बे-मा'नी सवाल 
कारवाँ में सब के सर पर बस यही सामान थे 
हम ने इस दुनिया के मय-ख़ाने में ये देखा फ़रेब 
बस वही प्यासे रहे जो साहिब-ए-ईमान थे 
ज़लज़लों पर आ गया इल्ज़ाम अच्छा ही हुआ 
वर्ना इस तख़रीब के पहले से भी इम्कान थे 
उन ग़मों ने दिल में सदियों के वसीले कर लिए 
जो फ़क़त दो-चार दिन के वास्ते मेहमान थे 
बस यही सच है कि हम अब उन की महकूमी में हैं 
जो 'नफ़स' अपनी हवेली में कभी दरबान थे
        ग़ज़ल
अब किसी को क्या बताएँ किस क़दर नादान थे
नफ़स अम्बालवी

