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अब किसी अंधे सफ़र के लिए तय्यार हुआ चाहता है | शाही शायरी
ab kisi andhe safar ke liye tayyar hua chahta hai

ग़ज़ल

अब किसी अंधे सफ़र के लिए तय्यार हुआ चाहता है

अंजुम इरफ़ानी

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अब किसी अंधे सफ़र के लिए तय्यार हुआ चाहता है
इक ज़रा देर में रुख़्सत तिरा बीमार हुआ चाहता है

आख़िरी क़िस्त भी साँसों की चुका देगा चुकाने वाला
ज़िंदगी क़र्ज़ से तेरे वो सुबुक-बार हुआ चाहता है

राज़-ए-सर-बस्ता समझते रहे अब तक जिसे अहल-ए-दानिश
मुन्कशिफ़ आज वही राज़ सर-ए-दार हुआ चाहता है

दिल-ए-वहशी के बहलने का नहीं एक भी सामान यहाँ
महफ़िल-ए-ज़ुहद-ए-मिज़ाजाँ से ये बेज़ार हुआ चाहता है

देख लेनी थी तुझे सीना-ए-आफ़त-ज़दगाँ की सख़्ती
तेरा हर तीर-ए-हदफ़-कार ही बेकार हुआ चाहता है

फैलते शहरों के जंगल में ये ग़ारों की तरह तंग मकाँ
ख़ून में वहशी-ए-ख़्वाबीदा भी बेदार हुआ चाहता है

दर्द-ए-दिल बाँटता आया है ज़माने को जो अब तक 'अंजुम'
कुछ हुआ यूँ कि वही दर्द से दो-चार हुआ चाहता है