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अब ख़ानुमाँ-ख़राब की मंज़िल यहाँ नहीं | शाही शायरी
ab KHanuman-KHarab ki manzil yahan nahin

ग़ज़ल

अब ख़ानुमाँ-ख़राब की मंज़िल यहाँ नहीं

बाक़र मेहदी

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अब ख़ानुमाँ-ख़राब की मंज़िल यहाँ नहीं
कहने को आशियाँ है मगर आशियाँ नहीं

इश्क़-ए-सितम-नवाज़ की दुनिया बदल गई
हुस्न-ए-वफ़ा-शनास भी कुछ बद-गुमाँ नहीं

मेरे सनम-कदे में कई और बुत भी हैं
इक मेरी ज़िंदगी के तुम्हीं राज़-दाँ नहीं

तुम से बिछड़ के मुझ को सहारा तो मिल गया
ये और बात है कि मैं कुछ शादमाँ नहीं

अपने हसीन ख़्वाब की ताबीर ख़ुद करे
इतना तो मो'तबर ये दिल-ए-ना-तवाँ नहीं

ज़ुल्फ़-ए-दराज़ क़िस्सा-ए-ग़म में उलझ न जाए
अंदेशा-हा-ए-इश्क़ कहाँ हैं कहाँ नहीं

हर हर क़दम पे कितने सितारे बिखर गए
लेकिन रह-ए-हयात अभी कहकशाँ नहीं

सैलाब-ए-ज़िंदगी के सहारे बढ़े चलो
साहिल पे रहने वालों का नाम-ओ-निशाँ नहीं