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अब ख़ाना-ब-दोशों का पता है न ख़बर है | शाही शायरी
ab KHana-ba-doshon ka pata hai na KHabar hai

ग़ज़ल

अब ख़ाना-ब-दोशों का पता है न ख़बर है

तस्लीम इलाही ज़ुल्फ़ी

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अब ख़ाना-ब-दोशों का पता है न ख़बर है
कोई है नज़र-बंद कोई शहर-बदर है

फिर फ़स्ल-ए-बहार आई परिंदे नहीं आए
वीरान अभी तक मिरे आँगन का शजर है

क़ामत ही मयस्सर है उसे और न चेहरा
ये कौन सी मख़्लूक़ है कैसा ये नगर है

मैं धूप उठाए हुए चुप-चाप खड़ा हूँ
इस दश्त में हस्ती मिरी मानिंद-ए-शजर है

फिर देखना ये उम्र भी बढ़ जाएगी कुछ रोज़
उस शख़्स के लौट आने का इम्कान अगर है

जो शहर था वो क़र्या-ए-वीरान है 'ज़ुल्फ़ी'
जो घर था किसी दौर में अब राहगुज़र है