अब के सहरा में अजब बारिश की अर्ज़ानी हुई
फ़स्ल-ए-इम्काँ को नुमू करने में आसानी हुई
प्यास ने आब-ए-रवाँ को कर दिया मौज-ए-सराब
ये तमाशा देख कर दरिया को हैरानी हुई
सर से सारे ख़्वान ख़ुशबू के बिखर कर रह गए
ख़ाक-ए-ख़ेमा तक हवा पहुँची तो दीवानी हुई
दूर तक उड़ने लगी गर्द-ए-सदा ज़ंजीर की
किस क़दर दीवार-ए-ज़िंदाँ को पशेमानी हुई
तुम ही सदियों से ये नहरें बंद करते आए हो
मुझ को लगती है तुम्हारी शक्ल पहचानी हुई
ग़ज़ल
अब के सहरा में अजब बारिश की अर्ज़ानी हुई
इरफ़ान सिद्दीक़ी