अब कहाँ दोस्त मिलें साथ निभाने वाले
सब ने सीखे हैं अब आदाब ज़माने वाले
दिल जलाओ या दिए आँखों के दरवाज़े पर
वक़्त से पहले तो आते नहीं आने वाले
अश्क बन के मैं निगाहों में तिरी आऊँगा
ऐ मुझे अपनी निगाहों से गिराने वाले
वक़्त बदला तो उठाते हैं अब उँगली मुझ पर
कल तलक हक़ में मिरे हाथ उठाने वाले
वक़्त हर ज़ख़्म का मरहम तो नहीं बन सकता
दर्द कुछ होते हैं ता-उम्र रुलाने वाले
इक नज़र देख तू मजबूरियाँ भी तो मेरी
ऐ मिरी लग़्ज़िशों पर आँख टिकाने वाले
कौन कहता है बुरे काम का फल भी है बुरा
देख मसनद पे हैं मस्जिद को गिराने वाले
ये सियासत है कि लानत है सियासत पे 'सदा'
ख़ुद हैं मुजरिम बने क़ानून बनाने वाले
ग़ज़ल
अब कहाँ दोस्त मिलें साथ निभाने वाले
सदा अम्बालवी