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अब जो उट्ठेंगे तो काँधों पे उठाना होगा | शाही शायरी
ab jo uTThenge to kandhon pe uThana hoga

ग़ज़ल

अब जो उट्ठेंगे तो काँधों पे उठाना होगा

रफ़अत शमीम

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अब जो उट्ठेंगे तो काँधों पे उठाना होगा
बिस्तर-ए-ख़ाक पे फिर हम को सुलाना होगा

हम से उजड़े हुए लोगों से भी मिल कर देखो
दरमियाँ कोई तो इक रब्त पुराना होगा

आख़िरी धूप हैं आँखों में बसा लो वर्ना
फिर कहाँ ख़्वाब किसी शब का सुहाना होगा

जब हो इसबात ही ख़ुद अपनी नफ़ी का बाइ'स
दिल को हर क़ैद-ए-तमन्ना से छुड़ाना होगा

तेरी दुनिया की अज़िय्यत तो उठा ली यारब
बोझ उक़्बा का भी क्या यूँ ही उठाना होगा