अब जो हम ज़ीस्त में बेज़ार नज़र आते हैं
हर तरफ़ अपने ख़रीदार नज़र आते हैं
वो हमें मख़्ज़न-ए-असरार नज़र आते हैं
हम उन्हें आशिक़-ए-बेज़ार नज़र आते हैं
हम को मय-ख़्वार ही मय-ख़्वार नज़र आते हैं
सब मय-ए-इश्क़ से सरशार नज़र आते हैं
बद-ज़नी ज़ुल्म-ओ-सितम हज्व-ए-सनम रुस्वाई
इश्क़ में तो बड़े आज़ार नज़र आते हैं
सब का दिल लेते हैं और अपना नहीं देते हैं
आप हम को बड़े होश्यार नज़र आते हैं
ख़त्म मुझ पर ही नहीं इश्क़ मसीहा मेरे
मुझ को तो आप भी बीमार नज़र आते हैं
अब जो रुस्वाई पे मेरी उन्हें दर्द आया है
बारयाबी के कुछ आसार नज़र आते हैं
दश्त-पैमाई से जब आबला-पा सोता हूँ
ख़्वाब में आप गुहर-बार नज़र आते हैं
एक वो हैं कि ज़माने में है शोहरा जिन का
एक हम मुल्क पे जो बार नज़र आते हैं
कूड़े-कर्कट का मिलेगा न विलायत में निशाँ
हिन्द में हर तरफ़ अम्बार नज़र आते हैं
किस से शिकवा करूँ 'रहबर' कि सभी अब तो मुझे
मेरे दिलबर के तलबगार नज़र आते हैं

ग़ज़ल
अब जो हम ज़ीस्त में बेज़ार नज़र आते हैं
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर