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अब इतनी अर्ज़ां नहीं बहारें वो आलम-ए-रंग-ओ-बू कहाँ है | शाही शायरी
ab itni arzan nahin bahaaren wo aalam-e-rang-o-bu kahan hai

ग़ज़ल

अब इतनी अर्ज़ां नहीं बहारें वो आलम-ए-रंग-ओ-बू कहाँ है

सिराज लखनवी

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अब इतनी अर्ज़ां नहीं बहारें वो आलम-ए-रंग-ओ-बू कहाँ है
क़फ़स में बैठे रहो असीरो अभी नशेमन बहुत गिराँ है

गुज़र रहा है जो दिल पे आलम अयाँ न होने पे भी अयाँ है
अभी फ़क़त क़स्द है फ़ुग़ाँ का अभी से चेहरा धुआँ धुआँ है

कहीं क़यामत न उठ खड़ी हो ज़मीन मिलती है आसमाँ से
बड़ी नज़ाकत की ये घड़ी है मिरी जबीं उन का आस्ताँ है

ये ख़ुश्क-लब ये उदास चेहरा ये मुज़्महिल मुज़्महिल से आँसू
यही फ़साना यही हक़ीक़त यही ख़मोशी यही ज़बाँ है

ये सब है नैरंग-ए-आब-ओ-दाना कहाँ हूँ मैं आह क्या बताऊँ
यही हैं बस मेरे दो ठिकाने क़फ़स नहीं है तो आशियाँ है

चराग़ हैं आसमाँ के ठंडे वो बिजलियाँ सर्द पड़ गईं सब
न अब वो तूफ़ान-ए-रंग-ओ-बू है न अब चमन है न आशियाँ है

धुआँ छटा शो'ले रक़्स में हैं नज़र उठा देख रौशनी में
ये तुझ को क्या हो गया है हमदम तिरा नहीं मेरा आशियाँ है

उरूज पर है मिरा मुक़द्दर कि तश्त-अज़-बाम है असीरी
ज़माने का इंक़लाब देखो क़फ़स के साए में आशियाँ है

वही ग़रीबों का भी ख़ुदा है बहुत है जीने को ये सहारा
'सिराज' इस दौर से गुज़रना मगर बड़ा सख़्त इम्तिहाँ है